Wednesday, July 22, 2009

वाह रे भारतीय कानून


वाह रे भारतीय कानून


हमारे भारतीय कानून की बात ही निराली है जहां सारे गवाहों की गवाही के बावजूद हसती-खेलती जानों को लाशों में बदलने वाले हत्यारे से वह पूछता है कि क्या तुम्हें इस गुनाह को कबूल करने के लिए किसी प्रकार से प्रताड़ित या दबाव तो नहीं दिया जा रहा है। जब कि कैमरे की रिकार्डिंग और 100 से अधिक लोगों की गवाही के बावजूद भी आतंकवादी मासूम बन कर जवाब देता है नही....... मैं दबाव से मुक्त होकर जबाव दे रहा हूं.................। पढ़ने और सुनने में यह भले ही किसी फिल्म की स्क्रिप्ट लगे। वाह रे भारतीय कानून । अगर प्रत्येक देश का कानून इसे ही अनुसरणित करे तो वह दिन दूर नहीं जब आतंकवादी गिरफ्तारी से बचने के बजाए स्वयं आकर खुद को सुपुर्द कर दें। क्योंकि यहां उनके लिए हर वह सुविधा मौजूद है जो उन्हें शायद ही कभी बाहर मिल सकती। साथ मीडिया की लाइम लाइट में आने का मौका भी तो मिलता है। जब आतंकवादी पेशी पर कभी कभार कैमरे पर नजर आ जाते हैं तो इन्हें देखकर पहचानना मुश्किल है .......... न तो इनके चेहरे पर अपने किए का पश्चाताप होता है और न ही इनकी वेशभूषा ही किसी कैदी के जैसी। वास्तव में हमारा देश सच्चा मेहमान नवाज देश है जहां पुर्तगाल से करोड़ों रुपए खर्च करने के बाद अबू सलेम की देखभाल ऐसे की जाती है। जैसे किसी विदेशी मेहमान की आवभगत की जा रही हो। एक देश अमेरिका था जिसने आतंकवादियों से मिले जख्म को बदला कुछ इस तरह लिया कि कोई भी अब उस तरफ आंख उठाकर तक नहीं देख सकेगा। और एक तरफ हम है अपने क्षमा के सिद्धांत पर डटे हुए।

Wednesday, July 15, 2009

देश का युवा भी रैली की गिरफ्त में






देश का युवा भी रैली की गिरफ्त में

राजनीति में युवाओं के आने के बाद से देश के सुखदभविष्य का स्वप्न देखने वाले लोगों को भले ही यह पढ़ने मेंकड़वा लगे लेकिन यह सत्य है कि यह युवा जोश भी चंद रैलियों के ओजस्वी भाषणों तक केन्द्रित होता जा रहा है।भोपाल में एनएसयूआई के युवा नेताओं ने प्रदेश सरकार की नीतियों के विरोध में विशाल रैली निकालकरविधानसभा घेराव के नारे के साथ अपना जोश प्रकट करने का प्रयास किया हो। लेकिन हमारे देश में रैलियों औरसभाओं की हकीकत क्या है यह किसी से छिपा नहीं है। जहां भाडे की भीड़ इकट्ठा करके किसी सरकार को भलाबुरा कहना कोई नई बात नहीं है। कई बार दो पार्टियों की एक साथ रैली होने पर ऐसी हास्यपद स्थितियां निर्मित होजाती हैं जहां कुछ सैंकड़ा कार्यकर्ताआें पर ही दोनों पार्टियों की नाक बचाने की जिम्मेदारी जाती है। इसबहाने कार्यकर्ताआें का फायदा यह हो जाता है कि वे दोनों पार्टियों को बुरा बताकर खुद भारत के जिम्मेदारनागरिक होने का परिचय दे देते हैं।
ऐसा नहीं कि यह लेख रैली या प्रदर्शनों का विरोध करने के लिए लिखा गया है। अगर गंभीर रूप से सोचा जाए तोरैली भी सरकार की गलत नीतियों पर उसे आगाह करने के लिए निकाली जाती है। लेकिन क्या यह एक तरफासंवाद नहीं होता, जहां एक पार्टी तो अपनी पूरी भड़ास और आरोप लगाकर अपनी बात कह लेती है और दूसरी पार्टीउसका मजा टीवी या समाचार पत्र पर यह सोच कर लेती है कि हमारी अगली रैली में इससे अधिक भीड़ कैसे जुटाईजाए। कहने को तो दोनों पार्टियां जनता के हितों के लिए ही संघर्ष का दिखावा करती है लेकिन जनता जो चाहतीवह उसे नहीं मिल पाता। क्या बिना निष्कर्ष की प्राप्ति के किसी अभियान या प्रदर्शन को सफल कहा जा सकताहै,...... नहीं.....कभी नहीं..... होना यह चाहिए कि जब कभी ऐसे प्रदर्शन किए जाएं तब दोनो पार्टियों कोआमने-सामने होना चाहिए, जिससे आरोपों और जबावों की असलियत तुरंत सामने सके। हालांकि सुरक्षा कीदृष्टि से यह कठिन हो सकता है लेकिन जनता के नजरिए से ऐसा ही होना चाहिए। हो सके तो कम लोगों के बीच मेंही सही , लेकिन जनता को उसके प्रश्नों के जबाव तो मिलें। जब तक ऐसा नहीं होगा ऐसे विरोध प्रदर्शन सिर्फदिखावा मात्र ही रहेंगे।


कृपया इसे पढ़ने के बाद मुझे किसी पार्टी का हितैषी समझा जाए।



धन्यवाद

Friday, July 3, 2009

जाने कहाँ गए वो दिन

जाने कहाँ गए वो दिन
आज जब अपने आप को 23 साल के करीब पाता हूं तो कई नए ख्याल मेरे दिल में आते हैं। कभी तन्हाई में अपने बारे में सोचने पर मानो यकीन कर पाना मुष्किल होता है कि कैसे इतना लंबा सफर , इतनी दूर घर-परिवार से यहां अकेले आ बैठे हैं। जब बचपन मे पल भर को मां कहीं चली जाती थी तो रो-रो कर बुरा हाल हो जाता था और जब अंधेरी रात मे किसी बुरे सपने से चीख निकल जाती थी तो लगता तो मुंह से सिर्फ पापा ही निकलता। उनसे दूर जाना असंभव था। और आज कई महीने उनके बिना यहां अंजान लोगों के बीच मे ऐसे गुजर जाते हैं जैसे कि पता ही नहीं चलता। शायद यही जिंदगी है। जो पल भर मंे हमंे कब कैसा बना दे कहना मुष्किल है।
पहली क्लास मे जब स्कूल जाते तो आधे समय ही स्कूल मे रो दिया करते कहते कि मां की याद आ रही है। इस बात पर टीचर अक्सर कहती कि ये कैसा लड़का है जो जरा सी दूर आने पर मां के लिए रोता है आगे कैसे पढ़ेगा तो हम कहते कि हम यहीं रहेंगे सदा मां के आंचल की छांव मे । लेकिन दुनियां की इस दौड़ मे ऐसा हो न सका। आज मां का आंचल भी है और छांव भी, लेकिन हम उसकी सीमा से कई किलो मीटर दूर यहां बैठे हुए हैं। जहां सिर्फ उसकी आवाज ही सुनाई देती है कभी-कभी फोन पर। जब बचपन मे पापा की डांट पड़ती तो लगता कि पापा कितना गुस्सा करते इससे अच्छा तो कहीं दूर जा कर अकेले रहना है। पर आज जब दूर और अकेले हैं तब लगता है कि कभी तो कोई हमे टोके यह कहते हुए कि बेटा रात में इतनी देर कैसे हो गई। तेरे ये दोस्त कैसे हैं या यहां जाना तेरा ठीक नहीं। लेकिन ऐसा अब हो नहीं पाता। क्यांे कि यह सब पीछे छूटता चला जाता है।
सच कहे तो जिंदगी की गति बहुत तेज है एक खास तो यह है कि इसकी गति का एहसास हमें कई पड़ाव पार कर लेने के बात होता है और हम पीछे मुड़कर जब देखते हैं तो लगता है कि यार कल ही की तो बात है। लेकिन वो कल आज गुजरा हुआ कल बन चुका है। जिस तक पहुंचना मुष्किल है बहुत मुष्किल। कभी किसी बूढे़ या जवानी से आगे निकल चुके इंसान के पास बात करके देखिए तो आप पाएंगे उनक बातों मे बचपन और बीती हुई यादें जरूर शामिल होती हैं। हमारे एक बाबूजी थे उनके पास बैठने और बातचीत करने का काफी मौका मिलता रहा। और विष्वास मानिए जिंदगी तो उन्होंने ही अपनी गुजारी थी लेकिन उनकी पूरी कहानी हम आज भी किसी को सुना सकते हैं। क्ये कि जब भी बातचीत होती तो वे आज की बाते से शुरू होकर उनके बचपन में पहुंच ही जाती। और वे अक्सर अपनी बुझी आंखों मे उन्हीं दृष्यों का ताजा करके खुश हो जाते।
शायद यही जिंदगी है जो जाने के बाद भी अपनी कसक इंसान की यादों मे छोड़ जाती है।

आप भी इस आवाज के साथ अपने नए सुर दे सकते हैं। जवाब के लिए प्रतीक्षारत

आप भी इस आवाज के साथ अपने नए सुर दे सकते हैं। जवाब के लिए प्रतीक्षारत




वरूण पाठक

छूटा अपने देश रे हम परदेसी हो गए

छूटा अपने देश रे हम परदेसी हो गए

-वरुण पाठक
अपना देश छूटने की कसक क्या होती है ये भला हम हां आपके शर्मा जी से बेहतर कौन जान सकता है। अरे, हमें भी गम रहा उन गलियो को छोड़ ने का जहां रामू और लंगोटू के साथ मिलकर उस भड़भूंजे चित्रगुप्त की कन्या चित्रा को अपनी छोटी आंकहें झपका कर इशारे किया करते थे। हाय, आज भी वो लम्हे याद आते हैं तो दो अटैक खा चुका कलेजा फिर से मचलने लगता है, अरे भाई तीसरे अटैक के लिए नहीं बल्कि उन चुलबुले अहसासांे की दोबारा अनुभूति करने के लिए। खैर, अब इन पुरानी बातो में उलझने से क्या फायदा, लेकिन जब बात निकल ही आई है पुराने दिनांे की तो क्यूं न आज इन्हें याद करके फिर से नया कर दिया जाए। भाइयों बहनों वो लम्हे भी क्या थे जब अपना प्यारा गांव खल्लीपुर हम छोड़ कर आए थे, इस गांव के नाम में भी एक रा ज छिपा है वो यह है कि गांव के जो जनक थे मतलब खल्ली खां बडे़ बेतरतीब तरीके से संगीत के सुरों के साथ न जाने क्या-क्या किया करते थे, उनके बेसुरे सुरों को सुन कर आसपास के गांव वालों ने पूरे गांव को ही खल्ली के नाम से बुलाना शुरू कर दिया और तहसील में पंजीकृत होने के साथ ही इसमें पुर भी जुड़ गया। ये तो हुआ हमारे गांव का परिचय,। अब बात करते हैं अपनी गांव से शुरू हुई शहर की यात्रा की। जब निकले थे घर से तो हाथ में कुछ बर्तन जो खाद वाली बोरी में बंधे हुए थे, और सिर पर लिपटा राम राम का स्वाफा, मानो हमारे गांव के होने की नेमप्लेट लगी हो। उस वक्त हमारी खूबसूरती देखते ही बनती थी। और जब षहर जाने वाली मोटर आई तो उस मेले में हम ऐसे घुस लिए जैसे ठंड लगने पर खाट के नीचे सोया कुत्ता। अपनी जगह बना लेता है। खैर, मोटर से जैसे ही उतरे और जा लटके मुंबई जाने वाली टेªन पर और पेट भर के धक्का खा-पीने के बाद जैसे तैसे अपने आधे तषरीफ के साथ हम खिड़की वाली सीट पर जा डटे जैसे ही रेल की रफतार बढ़ती हमारी सीट हमारे नीचे से खिसकने लगती। फिर भी हम यात्रा का आनंद लेने का असफल प्रयास करने लगे, असफल इसलिए कि जितना बैठने की कोशिश करते उतना ही खिसक जाते। खैर हम डटे हुए थे गांव के जो ठहरे। तेज रफ्तार से भागती रेल को पहली बार देखा था,आते जाते सूखे पेड़ मानो हमें आइना दिखाने की कोशिश कर रहे हों । खैर हमने उस ओर से आंखे खचाखच भरे डिब्बे की तरफ घुमा लीं। जहां बंबई के कई छोरों को देखकर लगा कि अंग्रेज अभी भी यहीं है। एक से एक लाल पीली टी-षर्ट और कपडे़ जो षर्मा जी के खानदान ने क्या पूरे गांव ने नहीं देखे होंगे। खैर हम भी खुश थे क्यों कि हम भी तो चल पड़े थे उसी रंगीन दुनियां की ओर। सोच रहे थे कि जब लौट कर गांव जायेंगे तो क्या ठाट होंगे नई झकाझक जीनस पर चमकती हरी टी-शर्ट और हाथ में बढ़िया वाला बैग, और कानांे में घुसे संगीत के दो तार , भाई संगीत हमारी जन्म भूमि की माटी me बसा हुआ है। फिर उससे कैसे जुदा हुआ जा सकता है। खैर, सोचते-सोचते ही मुंबई भी आ ही गई, और हम अपनी गठरी को साथ लिए बड़ लिए रोडांे की तरफ। ये बड़ी-बड़ी चैड़ी सड़कें और उसकी छाती से चिंघारते हुए गुजरते हाथी घोड़े जैसी गाड़ियां हमारी तो जैसे जान ही अटक गई। खैर रोड़ तो पार करनी ही थी ही सो आगे बढे़ लेकिन जैसे ही आगे बढ़ते तो लगता कि बस अब तो मरे चड़ गई गाड़ी। पूछते-पाछते पहुंच गए अपने गांव के दूर के रिष्तेदार के यहां। कुछ दिन रहने के बाद हमंे एक सिनेमाघर मंे टिकट काटने की नौकरी भी मिल गई। भई अगर मुंबई की लड़कियांे के दर्षन करने हों तो सिनेमा घर जरूर जाना चाहिए। यह बात हम यूं ही हवा मंे नहीं कह रहे पूरे 18 महीने का अनुभव लिया है। जब पहले दिन अपने सीनियर सर के साथ मतलब दादू साहब जो पिछले 20 वर्षाें से टिकट फाड़ने मंे माहिर हो चुके थे, हमारी फील्ड के थे तो हमारे लिए तो सीनियर सर ही हुए न। उनके पीछे बैठ कर हमने सामने की सारी लड़कियांे को आंखें फाड़-फाड़ कर खूब निहारा। हमारा रवैया देखते हुए दादू को देर न लगी कि लड़का वहां से जहां आज भी लड़कियां घर मंे रखे खजाने के समान रखी जाती है। तो उन्हांेने हमंे पहले ही दिन हिदायत दे डाली बोले बेटा ये बंबई की लड़कियां बस देख कर ही काम चलाना पड़ता है कोई फंसने वाली नहीं, वरना मैं कहां अपनी जिंदगी यूंही टिकट काटने मंे गुजार देता। खैर हमंे इन सब बातों से कहां मतलब था। हम तो अपनी रंगीन जिंदगी के रंगीन ख्वाब देखने मंे व्यस्त थे। कई बार तो ऐसी लड़कियांे से सामना पड़ा जो सिर्फ अपने कुछ प्राकृतिक लक्षणांे के कारण लड़की कही जा सकती थीं और कभी ऐसे लड़के मिले जो नाम से लड़के थे। डेढ़ साल के अपने बंबईया जीवन में हमें ऐसे अजीबो गरीब करीब डेढ़ हजार अनुभव हुए होंगे। सब्जी भाजी तरकारी से लेकर रेल की मारामारी और समुंदर किनारे लिपी पुती घूमती हसीनाएं न जाने इतने चक्कर की हम जैसा भोला आदमी तो इनसे पार ही न पा सके। ऐसा लगा कि कब इस बंबई से निजात मिले और इसी ऊहा-पोह में एक दिन अपनी गठरी नहीं नहीं भाई अब तो हम नए बैग के मालिक हो चुके थे और हां हमारी वो जीनस और टीशर्ट की इच्छा भी पूरी हो चुकी थी। लेकिन एक इच्छा अब मर चुकी थी हमेशा के लिए कि अबकभी न छोेड़ेगे ं अपना गांव। अब हमारा गाना बदल चुका था छूटा अपना देश नहीं , बल्कि आ अब लौट चलें हो चुका था।

hanshi se shuruaat

बदलता फैषन और हमारा पैशन
-वरुण पाठक
आजकल हर ओर बदलते फैशन के जलवे बिखरे हुए हैं जहां देखो वहीं रंगी पुती दुकानॉ से सजीले युवा बाहर आते नजर आते है। परिधान भी एक से एक और इसके पहनने वाले भी, कभी शाहरूख तो कभी अमिताभ बच्चन। हम भी बडे़ शौकीन रहे हैं नए कपडे़ पहनने के। हमारा भी मन करता है ये चकाचक कपडे़ पहन कर अपनी साठ बसंत पूरी कर चुकी श्रीमती जी के साथ घुमने जाने का हालांकि यह हमारा सत्तरवां है। भाई ख्वाहिशे है सो मचल जाती है, वरना हम कहां यह सब पसंद करते हैं। हमने तो अपनी जवानी में कपरों विज्ञापन ही कहां देखे थे। फैषन के नाम पर गांधी जी की धोती और नेहरू की टोपी का ही जमाना था, फिर अग्रेंजो से पेनट-शर्ट पहनना सीख लिया। मगर, आजकल जो नौजवानॉ का रंग है उसे देखकर कभी-कभी हमारा भी मन होता है। जींस टी-शर्ट पहनकर बलखाने का। अरे, जब हमारी साठिया श्रीमती स्टायलिश चोटी कर बहुआंे की लिपस्टिक पोत सकतीं हैं, पोतना इसलिए कि जो होंठ कभी हुआ करते थे आज तो सिर्फ उनका सैंपल ही शेष है। उनको सजाया तो नहीं जा सकता बस पोत सकते हैं। तो फिर हम किस बात मैं कम है। लेकिन गालो पर गड्ढे और चूने से सफेद बाल हमारे जोश को वर्फ कर देते है। पर, हमने तो यहां तक सुना है कि पैसे के बदले खूबसूरत गाल और काले बाल दोनांे ही मुमकिन है। नही तो अमिताभ कौन से 21 के हैं लेकिन 21 साल के लड़को की लड़कियां इतनी दीवानी न होंगी जितनी इस ब्लैक-एंड-व्हाइट शेविंग वाले बूढे़ की है।हमने भी अपनी दिली तमन्ना पूरी करने की ठान ली, इससे पहले भगवान और कुछ ठान ले। हां जी अब कोई भरोसा थोड़े ही है। तो चल दिए दिल के अरमान पूरे करने, वस्त्रांे के बडे़ से शोरूम के भीतर। अंदर जाते ही हमारी आंखे चमक गईं, पहली बार युवाआंे को कपड़े खरीदने के लिए इतनी बड़ी तादात मंे जो देखा था। हमारे जमाने मंे तो इतनी तैयारी से लोग गांधी जी के भाषणांे मंे ही जाया करते थे, क्यांे कि बाद मंे अग्रंेजों की मार से भागना जो पड़ता था। खैर, हम भी सोच लिए रंगीन होने की। और लगे हाथांे दो जींस और टी-षर्ट खरीद ही डाले। दुकानदार समझा होगा कि अपने पोते के लिए, खैर वो जो भी समझे हम चेंजिंग रूम मंे दाखिल हो चुके थे नए रंग मंे रंगने। खादी का कुर्ता उतार कर हमने जो जींस और टी-षर्ट चढ़ाई तो अपना वांकापन फिर से ताजा हो आया। काष हमारे टाइम पे भी ऐसा ही कुछ करिष्मा रहा होता। तो हमंे भी अपनी बोरिंग पत्नी के चंगुल मंे न फंसना पड़ता। रूम से जैसे ही बाहर निकले तो सभी की निगाहंे हम पर ही ठहर गईं,अरे हम लग ही इतने स्मार्ट रहे थे। यह भी हो सकता है कि वे उस कुर्ते पजामे वाले बुजुर्ग को ढंूढ़ने की कोषिष कर रहे हों जिसे उन्हांेने आते देखा था। बहरहाल, हम तो अपने जोष मंे इठते हुए आगे बढ़ लिए। जब अपने मोहल्ले मंे दाखिल हुए तो हमारे साथी मारे जलन के मुस्कुराने लगे। हम ध्यान न देते हुए घर के भीतर जा पहुंचे। जैसे ही बहुआंे और श्रीमती ने हमंे देखा तो उनके दांत खुले के खुले रह गए। उनका ठहाका सुनकर बेटे भी उनका साथ देने बाहर चले आए। हद तो तब हो गई जब हमारी दो साल की पौती भी हमंे न पहचान सकी। हंसी की आवाज कानांें मंे आइने के सामने अपने रूप को निहारने लगे। फिर गौर से स्वयं को देखने पर न जाने कैसे हमारी हंसी भी खुल गई और बसवस ही मुंह से निकल पड़ा वाह, शर्मा जी सफेद बाल और टी-षर्ट लाल, खूब कमाल। और जा पहुंचे अपनंे खुटी पर टंगे कुर्ते की शरण मंे । अरे भईया, जो शुरू से पहना है वही तो जचेगा। और फिर बूढे़ बंदर का मन कितना ही उछालें क्यूं न मारे उसकी घुड़की तो कम हो ही जाती हैं। अब हम नौजवानांे को स्टायलिष न कहते हुए स्टाइललैस कहते हैं और अपनी गांधी टोपी मे खुष रहते हैं।