छूटा अपने देश रे हम परदेसी हो गए
-वरुण पाठक
अपना देश छूटने की कसक क्या होती है ये भला हम हां आपके शर्मा जी से बेहतर कौन जान सकता है। अरे, हमें भी गम रहा उन गलियो को छोड़ ने का जहां रामू और लंगोटू के साथ मिलकर उस भड़भूंजे चित्रगुप्त की कन्या चित्रा को अपनी छोटी आंकहें झपका कर इशारे किया करते थे। हाय, आज भी वो लम्हे याद आते हैं तो दो अटैक खा चुका कलेजा फिर से मचलने लगता है, अरे भाई तीसरे अटैक के लिए नहीं बल्कि उन चुलबुले अहसासांे की दोबारा अनुभूति करने के लिए। खैर, अब इन पुरानी बातो में उलझने से क्या फायदा, लेकिन जब बात निकल ही आई है पुराने दिनांे की तो क्यूं न आज इन्हें याद करके फिर से नया कर दिया जाए। भाइयों बहनों वो लम्हे भी क्या थे जब अपना प्यारा गांव खल्लीपुर हम छोड़ कर आए थे, इस गांव के नाम में भी एक रा ज छिपा है वो यह है कि गांव के जो जनक थे मतलब खल्ली खां बडे़ बेतरतीब तरीके से संगीत के सुरों के साथ न जाने क्या-क्या किया करते थे, उनके बेसुरे सुरों को सुन कर आसपास के गांव वालों ने पूरे गांव को ही खल्ली के नाम से बुलाना शुरू कर दिया और तहसील में पंजीकृत होने के साथ ही इसमें पुर भी जुड़ गया। ये तो हुआ हमारे गांव का परिचय,। अब बात करते हैं अपनी गांव से शुरू हुई शहर की यात्रा की। जब निकले थे घर से तो हाथ में कुछ बर्तन जो खाद वाली बोरी में बंधे हुए थे, और सिर पर लिपटा राम राम का स्वाफा, मानो हमारे गांव के होने की नेमप्लेट लगी हो। उस वक्त हमारी खूबसूरती देखते ही बनती थी। और जब षहर जाने वाली मोटर आई तो उस मेले में हम ऐसे घुस लिए जैसे ठंड लगने पर खाट के नीचे सोया कुत्ता। अपनी जगह बना लेता है। खैर, मोटर से जैसे ही उतरे और जा लटके मुंबई जाने वाली टेªन पर और पेट भर के धक्का खा-पीने के बाद जैसे तैसे अपने आधे तषरीफ के साथ हम खिड़की वाली सीट पर जा डटे जैसे ही रेल की रफतार बढ़ती हमारी सीट हमारे नीचे से खिसकने लगती। फिर भी हम यात्रा का आनंद लेने का असफल प्रयास करने लगे, असफल इसलिए कि जितना बैठने की कोशिश करते उतना ही खिसक जाते। खैर हम डटे हुए थे गांव के जो ठहरे। तेज रफ्तार से भागती रेल को पहली बार देखा था,आते जाते सूखे पेड़ मानो हमें आइना दिखाने की कोशिश कर रहे हों । खैर हमने उस ओर से आंखे खचाखच भरे डिब्बे की तरफ घुमा लीं। जहां बंबई के कई छोरों को देखकर लगा कि अंग्रेज अभी भी यहीं है। एक से एक लाल पीली टी-षर्ट और कपडे़ जो षर्मा जी के खानदान ने क्या पूरे गांव ने नहीं देखे होंगे। खैर हम भी खुश थे क्यों कि हम भी तो चल पड़े थे उसी रंगीन दुनियां की ओर। सोच रहे थे कि जब लौट कर गांव जायेंगे तो क्या ठाट होंगे नई झकाझक जीनस पर चमकती हरी टी-शर्ट और हाथ में बढ़िया वाला बैग, और कानांे में घुसे संगीत के दो तार , भाई संगीत हमारी जन्म भूमि की माटी me बसा हुआ है। फिर उससे कैसे जुदा हुआ जा सकता है। खैर, सोचते-सोचते ही मुंबई भी आ ही गई, और हम अपनी गठरी को साथ लिए बड़ लिए रोडांे की तरफ। ये बड़ी-बड़ी चैड़ी सड़कें और उसकी छाती से चिंघारते हुए गुजरते हाथी घोड़े जैसी गाड़ियां हमारी तो जैसे जान ही अटक गई। खैर रोड़ तो पार करनी ही थी ही सो आगे बढे़ लेकिन जैसे ही आगे बढ़ते तो लगता कि बस अब तो मरे चड़ गई गाड़ी। पूछते-पाछते पहुंच गए अपने गांव के दूर के रिष्तेदार के यहां। कुछ दिन रहने के बाद हमंे एक सिनेमाघर मंे टिकट काटने की नौकरी भी मिल गई। भई अगर मुंबई की लड़कियांे के दर्षन करने हों तो सिनेमा घर जरूर जाना चाहिए। यह बात हम यूं ही हवा मंे नहीं कह रहे पूरे 18 महीने का अनुभव लिया है। जब पहले दिन अपने सीनियर सर के साथ मतलब दादू साहब जो पिछले 20 वर्षाें से टिकट फाड़ने मंे माहिर हो चुके थे, हमारी फील्ड के थे तो हमारे लिए तो सीनियर सर ही हुए न। उनके पीछे बैठ कर हमने सामने की सारी लड़कियांे को आंखें फाड़-फाड़ कर खूब निहारा। हमारा रवैया देखते हुए दादू को देर न लगी कि लड़का वहां से जहां आज भी लड़कियां घर मंे रखे खजाने के समान रखी जाती है। तो उन्हांेने हमंे पहले ही दिन हिदायत दे डाली बोले बेटा ये बंबई की लड़कियां बस देख कर ही काम चलाना पड़ता है कोई फंसने वाली नहीं, वरना मैं कहां अपनी जिंदगी यूंही टिकट काटने मंे गुजार देता। खैर हमंे इन सब बातों से कहां मतलब था। हम तो अपनी रंगीन जिंदगी के रंगीन ख्वाब देखने मंे व्यस्त थे। कई बार तो ऐसी लड़कियांे से सामना पड़ा जो सिर्फ अपने कुछ प्राकृतिक लक्षणांे के कारण लड़की कही जा सकती थीं और कभी ऐसे लड़के मिले जो नाम से लड़के थे। डेढ़ साल के अपने बंबईया जीवन में हमें ऐसे अजीबो गरीब करीब डेढ़ हजार अनुभव हुए होंगे। सब्जी भाजी तरकारी से लेकर रेल की मारामारी और समुंदर किनारे लिपी पुती घूमती हसीनाएं न जाने इतने चक्कर की हम जैसा भोला आदमी तो इनसे पार ही न पा सके। ऐसा लगा कि कब इस बंबई से निजात मिले और इसी ऊहा-पोह में एक दिन अपनी गठरी नहीं नहीं भाई अब तो हम नए बैग के मालिक हो चुके थे और हां हमारी वो जीनस और टीशर्ट की इच्छा भी पूरी हो चुकी थी। लेकिन एक इच्छा अब मर चुकी थी हमेशा के लिए कि अबकभी न छोेड़ेगे ं अपना गांव। अब हमारा गाना बदल चुका था छूटा अपना देश नहीं , बल्कि आ अब लौट चलें हो चुका था।