बदलता फैषन और हमारा पैशन
-वरुण पाठक
आजकल हर ओर बदलते फैशन के जलवे बिखरे हुए हैं जहां देखो वहीं रंगी पुती दुकानॉ से सजीले युवा बाहर आते नजर आते है। परिधान भी एक से एक और इसके पहनने वाले भी, कभी शाहरूख तो कभी अमिताभ बच्चन। हम भी बडे़ शौकीन रहे हैं नए कपडे़ पहनने के। हमारा भी मन करता है ये चकाचक कपडे़ पहन कर अपनी साठ बसंत पूरी कर चुकी श्रीमती जी के साथ घुमने जाने का हालांकि यह हमारा सत्तरवां है। भाई ख्वाहिशे है सो मचल जाती है, वरना हम कहां यह सब पसंद करते हैं। हमने तो अपनी जवानी में कपरों विज्ञापन ही कहां देखे थे। फैषन के नाम पर गांधी जी की धोती और नेहरू की टोपी का ही जमाना था, फिर अग्रेंजो से पेनट-शर्ट पहनना सीख लिया। मगर, आजकल जो नौजवानॉ का रंग है उसे देखकर कभी-कभी हमारा भी मन होता है। जींस टी-शर्ट पहनकर बलखाने का। अरे, जब हमारी साठिया श्रीमती स्टायलिश चोटी कर बहुआंे की लिपस्टिक पोत सकतीं हैं, पोतना इसलिए कि जो होंठ कभी हुआ करते थे आज तो सिर्फ उनका सैंपल ही शेष है। उनको सजाया तो नहीं जा सकता बस पोत सकते हैं। तो फिर हम किस बात मैं कम है। लेकिन गालो पर गड्ढे और चूने से सफेद बाल हमारे जोश को वर्फ कर देते है। पर, हमने तो यहां तक सुना है कि पैसे के बदले खूबसूरत गाल और काले बाल दोनांे ही मुमकिन है। नही तो अमिताभ कौन से 21 के हैं लेकिन 21 साल के लड़को की लड़कियां इतनी दीवानी न होंगी जितनी इस ब्लैक-एंड-व्हाइट शेविंग वाले बूढे़ की है।हमने भी अपनी दिली तमन्ना पूरी करने की ठान ली, इससे पहले भगवान और कुछ ठान ले। हां जी अब कोई भरोसा थोड़े ही है। तो चल दिए दिल के अरमान पूरे करने, वस्त्रांे के बडे़ से शोरूम के भीतर। अंदर जाते ही हमारी आंखे चमक गईं, पहली बार युवाआंे को कपड़े खरीदने के लिए इतनी बड़ी तादात मंे जो देखा था। हमारे जमाने मंे तो इतनी तैयारी से लोग गांधी जी के भाषणांे मंे ही जाया करते थे, क्यांे कि बाद मंे अग्रंेजों की मार से भागना जो पड़ता था। खैर, हम भी सोच लिए रंगीन होने की। और लगे हाथांे दो जींस और टी-षर्ट खरीद ही डाले। दुकानदार समझा होगा कि अपने पोते के लिए, खैर वो जो भी समझे हम चेंजिंग रूम मंे दाखिल हो चुके थे नए रंग मंे रंगने। खादी का कुर्ता उतार कर हमने जो जींस और टी-षर्ट चढ़ाई तो अपना वांकापन फिर से ताजा हो आया। काष हमारे टाइम पे भी ऐसा ही कुछ करिष्मा रहा होता। तो हमंे भी अपनी बोरिंग पत्नी के चंगुल मंे न फंसना पड़ता। रूम से जैसे ही बाहर निकले तो सभी की निगाहंे हम पर ही ठहर गईं,अरे हम लग ही इतने स्मार्ट रहे थे। यह भी हो सकता है कि वे उस कुर्ते पजामे वाले बुजुर्ग को ढंूढ़ने की कोषिष कर रहे हों जिसे उन्हांेने आते देखा था। बहरहाल, हम तो अपने जोष मंे इठते हुए आगे बढ़ लिए। जब अपने मोहल्ले मंे दाखिल हुए तो हमारे साथी मारे जलन के मुस्कुराने लगे। हम ध्यान न देते हुए घर के भीतर जा पहुंचे। जैसे ही बहुआंे और श्रीमती ने हमंे देखा तो उनके दांत खुले के खुले रह गए। उनका ठहाका सुनकर बेटे भी उनका साथ देने बाहर चले आए। हद तो तब हो गई जब हमारी दो साल की पौती भी हमंे न पहचान सकी। हंसी की आवाज कानांें मंे आइने के सामने अपने रूप को निहारने लगे। फिर गौर से स्वयं को देखने पर न जाने कैसे हमारी हंसी भी खुल गई और बसवस ही मुंह से निकल पड़ा वाह, शर्मा जी सफेद बाल और टी-षर्ट लाल, खूब कमाल। और जा पहुंचे अपनंे खुटी पर टंगे कुर्ते की शरण मंे । अरे भईया, जो शुरू से पहना है वही तो जचेगा। और फिर बूढे़ बंदर का मन कितना ही उछालें क्यूं न मारे उसकी घुड़की तो कम हो ही जाती हैं। अब हम नौजवानांे को स्टायलिष न कहते हुए स्टाइललैस कहते हैं और अपनी गांधी टोपी मे खुष रहते हैं।
Friday, July 3, 2009
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